जनरल वी के सिंह के जन्मतिथि के विवाद से जुड़ा मसला और उलझता जा रहा है। हालाकि सरकार के पास अभी भी वक्त है कि इस मामले को कोर्ट के बाहर निपटा ले। क्योंकि कोर्ट में सरकार के जीतती है तो भी उसकी हार होगी और हार जाने पर तो हार है ही। आप सब जानते हैं कि देश में जन्मतिथि के लिए हाईस्कूल के प्रमाण पत्र को मान्यता मिली हुई है। यानि जो लोग भी पढे़ लिखे हैं, वो सभी जगहों पर हाईस्कूल के प्रमाण पत्र को ही जन्मतिथि के लिए इस्तेमाल करते हैं। बात चाहे नौकरी की हो, या फिर बैंक एकाउंट, पासपोर्ट, स्कूल कालेज कहीं भी जन्मतिथि की जरूरत हो, यही प्रमाण पत्र मान्य होता है। जनरल वी के सिंह के हाईस्कूल के प्रमाण पत्र में उनकी जन्मतिथि 10 मई 1951 है। इसी प्रमाण पत्र को मुख्य आधार बनाकर जनरल साहब कोर्ट पहुंचे हैं। अगर जनरल जीत गए फिर तो सरकार को मुंह की खानी ही पड़ेगी, अगर सरकार जीत गई, तब तो वो और बड़ी मुश्किल में फंस जाएगी। क्योंकि इसके बाद देश में हाईस्कूल के प्रमाण पत्र की मान्यता पर सवाल खड़े हो जाएंगे और कहा जाएगा कि अगर जनरल वी के सिंह का हाईस्कूल प्रमाण पत्र गलत हो सकता है तो और किसी का क्यों नहीं गलत हो सकता। सरकारी नौकरी में विवाद खड़ा करने के लिए लोग एक दूसरे की सर्विस बुक की जन्मतिथि में छेड़छाड़ करने लगेंगे, पदोन्नत के मामले में आईएएस और आईपीएस अफसरों की जन्मतिथि में छेड़छाड़ शुरू होने लगेगी। हाईस्कूल के प्रमाण पत्र को इसी आधार पर खारिज कर दिया जाएगा कि जनरल साहब का भी प्रमाण पत्र गलत था। जनरल वी के सिंह इस साल रिटायर हों या अगले साल ये ज्यादा मायने नहीं रखता, लेकिन कुछ भ्रष्ट अफसर किस तरह आर्म्स दलालों के साथ मिलकर सेनाध्यक्ष जैसे पद पर बैठे व्यक्ति को घेरे में ले लेते हैं, ये एक ऐसा उदाहरण बन जाएगा, जिसकी काली छाया से निकलना आसान नहीं होगा। जानकारों का तो यहां तक कहना है कि एक लाबी जनरल को हटाने के लिए अब तक देश में कई सौ करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है और इस गोरखधंधे में सैन्य अफसर, नौकरशाह, सफेदपोश सभी के हाथ सने हुए हैं।
मित्रों, मेरी कोशिश होगी कि यहां आपको रोजाना अपडेट दूं। आज की बडी खबर पर अपना नजरिया रखूं, इस कोशिश को कामयाब बनाने की जिम्मेदारी आपको भी निभानी होगी। यहां आएं और विषय पर खुल कर अपना नजरिया रखें...
Friday, January 20, 2012
Monday, January 16, 2012
बदबू आती है यूपी की राजनीति से ...
चुनाव जीतना है मकसद, तरीका कुछ भी और कैसा भी हो। सच कहूं तो इस समय नेताओं की बातों में इतनी गंदगी भरी हुई है कि इनका नाम भर सुनकर बदबू आने लगती है। अब देखिए अपने जन्मदिन पर भी मायावती शालीन नहीं रह पाईं। तर्क भी ऐसे बेपढों वाली देतीं हैं कि हैरानी होती है। सच कहूं तो चुनाव आयोग ने मायावती का बहुत पक्ष लिया, वरना उन्होंने जिस तरह से सरकारी पैसे का दुरुपयोग करके जगह जगह अपनी और पार्टी के चुनाव निशान हाथी की मूर्ति रखवा दी, उसकी सजा इन मूर्तियों को ढकना भर नहीं है। सजा तो ये होनी चाहिए कि मायावती को जीवन भर के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य कर दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं पार्टी का चुनाव निशान भी बदल देना चाहिए। ऐसा नहीं है कि ये बात मायावती नहीं जानती हैं कि उन्होंने कितना बड़ा अपराध किया है, लेकिन कुतर्क देखिए, कि अगर ऐसा है तो लोकदल का चुनाव निशान हैंडपंप भी सरकारी खजाने से लगा है, उसे भी ढक दिया जाए। मायावती ऐसी घटिया बातें जान बूझ कर करती हैं, क्योंकि जो उनके वोटर हैं, उन्हें ऐसी ही सतही बातें समझ में आती हैं।
एक ओर जब देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ इतना बड़ा आंदोलन छिड़ा हो और वो चुनाव का मुद्दा बन रहा हो, तब ऐसा काम बीजेपी ही कर सकती है कि एक बेईमान नेता बाबू सिंह कुशवाहा को अपनी पार्टी में शामिल करे। ऐसे में जब बीजेपी कहती है कि उसका चाल चरित्र और चेहरा दूसरी पार्टियों से अलग है, तो मुझे भी लगता है कि वाकई अलग है। ऐसा करने की हिम्मत और पार्टी तो बिल्कुल नहीं कर सकती। अच्छा भाजपाई अपने कुकृत्यों के बचाव में भी देवी देवाताओं को इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। बाबू सिंह कुशवाह को लेने के बाद भाजपा से जब पूछा गया कि इससे पार्टी की छवि पर खराब असर नहीं पड़ा, तो पार्टी के एक नेता ने कहा कि गंगा मइया में हजारों गंदे नाले आकर मिलते हैं तो क्या गंगा मइया मैली हो गई, उसकी पवित्रता खत्म हो गई ? शाबाश.. भाजपाइयों आपका कोई जवाब नहीं। इसीलिए अभी तीसरे नंबर की पार्टी है, इस चुनाव में क्या होगा, भगवान मालिक है।
कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी बहुत मेहनत कर रहे हैं उत्तर प्रदेश में। उन्हें लग रहा है कि उनकी पार्टी बहुत बेहतर प्रदर्शन करेगी इस चुनाव में। पर राहुल को कौन समझाए कि वो बेचारे जितना मेहनत करते हैं उनकी पार्टी के नेता दिग्विजय सिंह उस पर पानी फेर देते हैं। राहुल अच्छा माहौल बना रहे थे कि श्री सिंह ने राहुल के किए कराए पर पानी फेर दिया। अरे क्या जरूरत थी इस समय बाटला हाउस मामले की चर्चा करने की। बाटला हाउस की चर्चा से श्री सिंह सुर्खियों में जरूर आ गए, लेकिन वोट में इजाफा बिल्कुल नहीं हुआ है। वैसे दिग्विजय मुझे तो किसी गंभीर बीमारी के शिकार लगते हैं, उनसे जनता जितनी दूर रहे वही अच्छा है। उनके पास मीडिया वाले बस इसीलिए जाते हैं कि कुछ आंय बांय शांय बोल देगें तो पूरे दिन का काम हो जाएगा।
अब बची समाजवादी पार्टी। मुझे लगता है कि अमर सिंह से छुटकारा पाने के बाद पार्टी थोड़ा विवादों से दूर है। वैसे युवा नेता अखिलेश की मेहनत कितना रंग लाएगी, ये तो चुनाव के नतीजों से पता चलेगा, पर डी पी यादव को पार्टी में लेने से इनकार कर अखिलेश ने ये तो साबित कर दिया है कि वो सही मायने में पार्टी के अध्यक्ष हैं और वो जो ठीक समझते हैं वहीं करेंगे। इन सबके बाद भी तमाम अपराधी छवि वाले लोग पार्टी का टिकट पाने में कामयाब हो गए हैं, इसलिए सपा को भी पाक साफ कहना गलत ही है।
बहरहाल यूपी के लोगों से एक सवाल पूछता हूं। यूपी के साथ चार और राज्यों में भी चुनाव हो रहे हैं , क्या आपको वहां की कोई खबर है ? मुझे लगता है कि कोई खबर नहीं होगी, क्योंकि वहां ऐसा कुछ है ही नहीं जो खबर बने। लेकिन आपको पता है यूपी के चुनाव की खबरें देश भर के अखबारों की सुर्खियों में है। इसलिए सबको पता है कि यूपी में क्या हो रहा है। नेताओं का बायोडाटा, कितने अपराधिक मामले, सबसे पैसे वाली दलित मुख्यमंत्री, रोजाना यूपी में करोडों रुपयों का पकड़ा जाना, असलहों की बरामदगी, नेताओं की दंबंगई, गांव गांव शराब की बरामदगी सब कुछ तो है सुर्खियों में। सही बताऊं बदबू आ रही है यूपी के चुनाव से, लेकिन क्या करुं मुझे भी पूरे एक महीने इन्हीं बदबूदार नेताओं के साथ बिताना है। भगवान भला करें।
नहीं चाहिए सचिन का महाशतक ...
मुझे इसी बात का डर था, कि कहीं सचिन अपने खराब प्रदर्शन से लोगों के निशाने पर ना जाएं और वही हुआ। देश भर में ना सिर्फ सचिन बल्कि राहुल द्रविण, बी बी एस लक्ष्मण और वीरेंद्र सहवाग को लेकर गुस्सा देखने को मिल रहा है। हालत ये हो गई है कि जो क्रिकेट प्रेमी कल तक सचिन को भारत रत्न देने की मांग कर रहे थे, वो इतने खफा हैं कि अगर सचिन को भारत रत्न मिल गया होता तो वे भारत रत्न वापस लेने की मांग करते हुए सड़कों पर उतर जाते। अरे भाई देश में क्रिकेट सिर्फ एक खेल भर नहीं है। क्रिकेट प्रेमी इसे अपना धर्म मानते हैं और धर्म की रक्षा के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। मैने देखा कि कल तक सचिन को क्रिकेट का भगवान कहने वाली मीडिया पहली दफा सचिन पर उंगली उठाने की हिम्मत जुटा पाई।
आमतौर पर सचिन की खामियों को ढकने वाली मीडिया पहली दफा बैकफुट पर नजर आई, वो भी इसलिए तमाम दिग्गज खिलाड़ियों ने टीम के खिलाफ आवाज बुलंद कर दी। वैसे महान क्रिकेटर सुनिल गावस्कर बहुत पहले ही कह चुके हैं कि खिलाड़ियों को अच्छे फार्म में रहने के दौरान सन्यास ले लेना चाहिए, जिससे लोग ये कहते फिरें कि अभी क्यों सन्यास ले लिया, अभी तो बहुत क्रिकेट बाकी है। ऐसा मौका नहीं देना चाहिए कि लोग पूछने लगें कि " अरे भइया सन्यास कब ले रहे हो " ? आज सचिन ही नहीं राहुल द्रविण और लक्ष्मण की यही हालत हो गई है कि लोग पूछने लगे हैं कि आखिर कब मैदान से बाहर होगे।
अब एक बात तो पूरी तरह साफ हो गई है कि सचिन समेत तमाम खिलाड़ी 2015 में होने वाले वर्ल्ड कप में नहीं खेल पाएंगे, ऐसे में हम वर्ल्ड कप की टीम अभी से क्यों नहीं तैयार कर रहे हैं। आज क्रिकेटप्रेमी सवाल कर रहे हैं कि सचिन तेंदुलकर टीम में क्यों हैं? जवाब सिर्फ एक है कि उन्होंने देश के लिए बहुत खेला है, अब उन्हें महाशतक बना लेने देना चाहिए। मैं कहता हूं कि महाशतक की कीमत क्या है, हम कितने दिनों तक और कितने मैच गंवाने को तैयार बैठे हैं। क्या सचिन की नाक देश की नाक से ज्यादा अहमियत रखती है। मुझे लगता है कि इसका जवाब है नहीं। टीम के चयन की जिम्मेदारी जिनके पास है, उनका कद ही उतना बडा नहीं है कि वो सचिन के बारे में फैसला करें, लिहाजा ये फैसला अब सचिन को ही करना होगा। आस्ट्रेलिया से लौटकर उन्हें क्रिकेट के सभी फार्मेट को अलविदा कहकर मुंबई इंडियंस के लिए टी 20 तक ही खुद को समेट लेना चाहिए।
सचिन की आड़ लेकर और खिलाडी बच जाते हैं। अब राहुल द्रविण को मजबूत दीवार कहना बेईमानी है। इसी तरह जिस बी बी एस लक्ष्मण से कंगारू डरते थे, उस लक्ष्मण ने कंगारुओं के सामने घुटने टेक दिए हैं। अब लक्ष्मण से कंगारु नहीं बल्कि कंगारुओं से अपना लक्ष्मण डर रहा है। भाई ये ठीक बात है कि वीरेंद्र सहवाग अच्छे खिलाड़ी हैं, लेकिन मुझे लगता है कि वो भरोसेमंद खिलाड़ी बिल्कुल नहीं हैं। 10 पारियों में खराब प्रदर्शन कर अगर एक पारी में रन बना देते हैं तो मुझे नहीं लगता कि सहवाग को भी टीम में रहना चाहिए। बहुत नाक कट चुकी है, दुनिया भर के खिलाड़ी हमारी टीम पर छींटाकसी कर रहे हैं, सारी सचिन अब हमें आपके महाशतक में कोई रुचि नहीं रह गई है।
Tuesday, January 10, 2012
मायावती का चुनाव निशान बदले आयोग ...
अड़तालिस घंटे के बाद नेट और टीवी से रूबरू हो पाया हूं। एक खबर मुझे बहुत परेशान कर रही है। ये खबर है उत्तर प्रदेश की। आपको पता ही है कि वहां की मुख्यमंत्री मायावती ने इस प्रदेश को वैसे ही बदरंग कर इसका चेहरा बिगाड़ दिया है। अब निर्वाचन आयोग का एक फैसला किसी के गले नहीं उतर रहा है।
दरअसल मुख्यमंत्री मायावती ने सूबे भर में अंबेडकर पार्क के नाम पर मनमानी की है। लखनऊ और नोएडा में तो कई एकड में पार्क बनाने में कई करोड रुपये खर्च किए गए हैं। मायावती ने इन पार्कों में दलित नेताओं की मूर्तियां तो लगवाई ही, पार्टी का चुनाव निशान हाथी की भी हजारों मूर्तियां पार्क में लगा दी गईं। अब चुनाव में इसे दूसरे दलों ने मुद्दा बना लिया है। उनका कहना है कि ये पार्क सरकारी पैसे से बने हैं और इसमें खुद मायावती, उनकी पार्टी के संस्थापक कांशीराम, भीमराव अंबेडकर, बाबा ज्योतिबाफुले समेत तमाम नेताओं की मूर्ति तो है ही, पार्टी का चुनाव निशान हाथी की मूर्ति भी एक दो नहीं हजारो की संख्या मे लगा दी गई है। जाहिर है इसका चुनाव पर असर पडे़गा।
निर्वाचन आयोग ने इस शिकायत की सुनवाई में बहुत ही गैरजिम्मेदाराना निर्णय दिया है। उनका कहना है कि पूरे प्रदेश में जहां कहीं भी पार्क या सरकारी परिसर में ऐसी मूर्तियां हैं उन्हें चुनाव तक ढक दिया जाए। अब देखिए ना इन पार्कों में हजारों करोड रुपये पहले ही खर्च किए जा चुके हैं। सिर्फ अस्थाई रुप से इसे ढकने पर लगभग पांच करोड रुपये खर्च होने का अनुमान बताया जा रहा है। जनवरी में ढकने के बाद इसे मार्च में हटा भी दिया जाना है, ऐसे में सरकारी खजाने से पांच करोड रुपये खर्च करने को कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। इन पार्कों को देखने से ही साफ पता चलता है कि इसके पीछे मुख्यमंत्रीं मायावती की मंशा कत्तई साफ नहीं रही है। ऐसे में सजा तो मिलनी ही चाहिए, लेकिन सवाल ये है कि सजा किसे मिलनी चाहिए ? जाहिर है सजा मुख्यमंत्री को मिलनी चाहिए थी, लेकिन जो सजा निर्वाचन आयोग ने सुनाई है कि इसे चुनाव तक ढक दिया जाए, ये सजा तो आम जनता को दी गई है। क्योंकि सरकारी खजाने में हमारे और आपके ही टैक्स का पैसा है।
मुझे लगता है कि आयोग को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। चूंकि आयोग ने इन मूर्तियों और हाथी को ढकने का आदेश दिया है, इससे इतना तो साफ है कि निर्वाचन आयोग मायावती को चुनाव आचार संहिता तोडने और चुनाव में गलत तरीका अपनाने का जिम्मेदार तो मानता है। ऐसे में आयोग को चाहिए कि वो बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का चुनाव निशान बदल दे। सही कारण होने पर चुनाव निशान बदले जाने का प्रावधान भी है। अगर आयोग चुनाव निशान नहीं बदलता है तो उसे बीएसपी को ये फरमान सुनाना चाहिए कि वो अपने पैसे से इन मूर्तियों को ढकने का काम करे। वैसे भी अगर कोई उम्मीदवार किसी दीवार पर नारे लिखवाता है तो उस उम्मीदवार को ही अपने खर्चे पर उसे साफ करने का आदेश दिया जाता है। अगर आचार संहिता में इसका प्रावधान भी है, फिर मायावती पर इसे क्यों नहीं लागू किया जा रहा है ?
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