पहले गुजरात का एक किस्सा सुना दूं, फिर पूरी कहानी बताता हूं। बात करीब सात आठ साल पुरानी है, मुझे शिलांग से दिल्ली आना था, मैं शिलांग एयरपोर्ट पर सिक्योरिटी चेक के बाद लांज में मैं बैठा हुआ था। इसी बीच एक साहब मेरे पास आए और पूछा कि क्या आप "गुजराती" हैं । मैंने कहा.. नहीं मैं गुजराती नहीं हूं, यूपी का रहने वाला हूं। वो थोड़ा गंदा सा मुंह बनाया और चला गया। खैर थोड़ी देर में ही वहां बैठे दूसरे लोगों में से एक गुजराती को उसने तलाश लिया और उसके पास अपना ब्रीफकेश रख कर टाँयलेट चला गया। मुझे रहा नहीं गया, उसके वापस आने पर मैने पूछा कि क्या आप गुजराती की तलाश इसलिए कर रहे थे कि आपको टाँयलेट जाना था और आप अपना ब्रीफकेश किसी गुजराती के पास रखना चाहते थे ? उसे मेरी बात पर कोई संकोच नहीं और कहां हां सही बात है। मैं गुजराती के अलावा किसी के पास ब्रीफकेश नहीं छोड़ सकता हूं।
आप सोच रहे होंगे की आठ साल पुरानी बात आखिर आज मुझे याद क्यों आई ? दरअसल अखबार की एक खबर पढ़कर मैं हैरान हूं। हालाकि अखबार में पूरी खबर नहीं है, लेकिन जितनी बातें है, वो कम से कम मुझे चौंकाने के लिए काफी है। खबर ये कि गुजरात के एक दालिया दंपत्ति ने अपनी 180 करोड़ की प्रापर्टी स्कूल, कालेज और धार्मिक संस्थानों को दान कर खुद पत्नी के साथ सूरत के वृद्धाश्रम में आ गए। अखबार में इस बात का जिक्र नहीं है कि उनके बेटा - बेटी हैं या नहीं ! लेकिन उन्होंने शमशान घाट पर भी 50 हजार रुपये जमा करा दिए हैं, जिससे उनकी मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार आसानी से हो सके। नरोत्तम भाई ( 97 ) और उनकी पत्नी लक्ष्मी बहन ( 84 ) सूरत के पास इलाके अडाजड़ से अब इस आश्रम में ही रह रहे हैं। वो मीडिया से भी दूरी बनाए हुए हैं।