Wednesday, June 20, 2012

कत्तई ईमानदार नहीं है रक्षामंत्री ....

गांव में हमारे एक मित्र देश की सच्चाई को गांव की भाषा में बड़े ही आसान तरीके से समझाया करते हैं। उनका अंदाज हल्का फुल्का होता है, पर बात तो वो बहुत ही गंभीर करते हैं। चलिए पहले आपको दो लाइन उनकी पढा़ देते हैं, उसके बाद मूल विषय पर आता हूं। वो कहते हैं...

माई आन्हर, बाऊ आन्हर
हमैं छोड़, सब भाई आन्हर।
केके  केके दिया देखाई,
बिजुरी अस भौजाई आन्हर।

भोजपुरी की इन चार लाइनों का आपको अर्थ भी समझाता हूं। कहने का आशय ये है कि मां अंधी है, पिता भी अंधे हैं, उसके अलावा सारे भाई भी अंधे हैं। उसका कहना है कि ऐसे हालात में वो किस किस को रोशनी दिखाए,  यहां तक की दूसरे घर से आई उसकी भाभी भी अंधों जैसा व्यवहार कर रही है। ये चार लाइनें देश की मौजूदा व्यवस्था के लिए कही गई हैं। जहां बेहतरी की अब कोई उम्मीद नहीं दिखाई  दे रही है। इसकी वजह भी है। आदमी जिसे बहुत ज्यादा ईमानदार और अच्छा आदमी समझता है अगर उसके बारे में कुछ ऐसी वैसी बात पता चलती है, तो उसका पूरी व्यवस्था से भरोसा टूट जाता है। ऐसा ही कुछ किया है रक्षामंत्री ए के एंटोनी ने..



कहा जा रहा था कि रक्षामंत्री की पत्नी टीचर हैं और एक बहुत ही साधारण महिला है। हो सकता है कि उनकी बनाई पेंटिंग की बाजार की कीमत और भी ज्यादा हो, पर उनकी पेंटिंग पांच सितारा होटल खरीदते तो किसी को उंगली उठाने का मौका नहीं मिलता। पर एयरोपोर्ट अथारिटी की खरीददारी से अब एंटोनी की ईमानदारी पर उंगली तो उठेगी ही। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूं कि ईमानदार नहीं है रक्षामंत्री ए के एंटोनी।

Friday, June 15, 2012

राष्ट्रपति पद की आड़ में बंगालियों की जंग ....

दिल्ली में महाभारत तो महामहिम के लिए हो रही है. यानि यहां नए राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा है। पर पूरे दिन टीवी चैनलों पर जो तस्वीर दिखाई दे रही है, उससे लगता है कि यहां प्रणव मुखर्जी और ममता बनर्जी के बीच कोई लड़ाई चल रही है। पूरा चुनाव प्रणव वर्सेज ममता दिखाई दे रहा है।
बंगाल के दो महत्वपूर्ण इस कदर एक दूसरे के विरोधी कैसे हो गए, ये बात किसी के भी समझ में नहीं आ रही है। कुछ दिन पहले ही ममता की आत्मकथा ‘माई अनफ़ॉरगेटेबल मेमॅरीज’ प्रकाशित हुई है, इसमें ममता ने प्रणव मुखर्जी को अपना बड़ा भाई बताया है और कहा कि वो उनका बहुत आदर करतीं हैं। इस किताब में उन्होंने स्व. राजीव गांधी की भी खुल कर तारीफ की है। एक ओर राजीव गांधी की प्रशंसा दूसरी ओर सोनिया गांधी की बात को नकारना, प्रणव को बड़ा भाई बताना और उन्हीं के रास्ते में कांटे बोना। ये सब क्या हो रहा है, आसानी से किसी के समझ में नहीं आ रहा है।
वैसे भी ममता जब भी केंद्र सरकार से नाराज होती हैं, तो प्रणव मुखर्जी ही उन्हें मनाते रहे हैं। उनके बीच बचाव के बाद ही रास्ता निकलता रहा है। आखिर ऐसा क्या हो गया कि प्रणव एक दम से ममता की आंखों के किरकिरी बन गए। अंदर से जो बात छन कर बाहर आ रही है, उससे लगता है कि पूरी ममता समर्थन का कीमत मांग रही हैं। कीमत भी ऐसी जो देना संभव नहीं है। ये सही बात है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने तमाम तरह के कर्जे ले रखें हैं और बंगाल को सालाना 21 हजार करोड़ रुपये सिर्फ ब्याज का भुगतान करना पड़ रहा है। ममता तीन साल के लिए ब्याज का भुगतान बंद कराना चाहती हैं। इसके अलावा एक स्पेशल पैकेज की मांग भी है। बंगाल को दिया गया तो यही पैकेज यूपी को भी देना होगा। 
प्रणव दादा की राजनीति में ऐसा कुछ नहीं कर सकते, जिससे उन पर ये इल्जाम लगे कि राष्ट्रपति बनने के लिए उन्होंने सरकारी खजाने का इस्तेमाल किया। लगता है कि मुखर्जी ने साफ मना कर दिया कि समर्थन के एवज में जो मांग की जा रही है, वो पूरी नहीं हो सकती। ऐसे में ममता जो कर रही हैं, उसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं।

चलते - चलते
हाहाहहाहाहहा टीएमसी नेता पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को भी मौका मिल गया ममता को गठबंधन धर्म समझाने का। ममता के जले पर नमक छिड़कते हुए श्री त्रिवेदी ने कहा कि ममता ने गठबंधन की मर्यादा को तोड़ा है। यूपीए सरकार में शामिल होने के बाद भी जिस तरह वो अपना अलग राग अलाप रही हैं, वो ठीक नहीं है। कहते है ना कि जब दिन खराब होता है तो आप हाथी पर बैठे रहे फिर भी कुत्ता काट लेता है। कुछ ऐसा ही इस समय ममता के साथ है। कल जो लोग सामने खड़े नहीं हो पाते थे, वो आज ममता को मर्यादा का पाठ पढ़ा रहे हैं।  
  

Thursday, June 14, 2012

खत्म होगा ममता का खेल ....

ममता बनर्जी का खेल खत्म होने वाला है। ममता की राजनीति को अगर आप थोडा भी समझते हैं तो आपको पता होना चाहिए कि ये अविश्वसनीय, अड़ियल और जिद्दी है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को इन्होंने खून के आंसू रोने पर मजबूर कर दिया था। ममता वही है, हां अटल जैसे स्वाभिमानी मनमोहन सिंह नहीं हैं, ये अपनी जब तक पूरी किरकिरी और थू थू नहीं करा लेंगे, कुर्सी छोड़ने वाले नहीं है। वरना तो जिस तरह से इनका नाम मुलायम और ममता ने राष्ट्रपति पद के लिए लिया है, उससे साफ हो गया है कि आप यूपीए गठबंधन के निर्विवाद नेता नहीं रहे। लिहाजा आपको सरकार और देशहित में तुरंत कुर्सी छोड़कर अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिए। खैर मनमोहन से ऐसे आदर्श की उम्मीद करना बैल से दुहना जैसा है।

खैर अब ममता की मुसीबत बढ़ने वाली है। वो कहने है ना ......... घर का ना घाट का। वैसी ही स्थिति बनने होने जा रही है ममता की। ममता की आज तक किसी से नहीं बनी है, तो भला मुलायम सिंह यादव से कितनी देर बनी रहेगी। ममता कभी भी सोच समझ कर ठंडे दिमाग से फैसला नहीं करती हैं। उनका  राजनीतिक मान मर्यादा से कोई सरोकार नहीं है। उनके लिए राष्ट्रपति का चुनाव और ग्राम प्रधान के चुनाव में कोई अंतर नहीं है। इस बार ममता मुलायम को समझने में धोखा खा रही है। उन्हें पता होना चाहिए कि मुलायम की आय से अधिक संपत्ति के मामले में बहुत फुरे फंसे हुए हैं, यही वजह है कि न्यूक्लीयर डील के दौरान जब यूपीए 1 से वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस लिया था, तो मुलायम झट से 10 जनपथ पहुंच गए और सरकार को समर्थन का ऐलान कर दिया। जबकि सबको पता है कि वामपंथियों से समाजवादी पार्टी के बहुत अच्छे रिश्ते थे। ये बात जानते हुए भी ममता ने मुलायम पर भरोसा किया है, जल्दी उन्हें मुलायम की हकीकत की जानकारी हो जाएगी।

सच ये है कि कांग्रेस को मुलायम की जरूरत है, उतना ही सच ये भी है कि मुलायम को कांग्रेस की कहीं ज्यादा जरूरत है। मुलायम के खिलाफ सीबीआई में आय से अधिक संपत्ति का मामला अभी भी विचाराधीन है और इसमें मुलायम सिंह बहुत बुरी तरह फंसे हुए हैं। ऐसे में मुलायम नहीं चाहेंगे कि उनकी छीछालेदर हो। ये डर उन्हें काफी समय से बना हुआ है, यही वजह है कि यूपीए वन को भी उन्होंने समर्थन दिया था, ये समर्थन उस समय भी जारी था, जब केंद्र सरकार समाजवादी पार्टी की कोई भी मांग मानने को तैयार नहीं थी। अभी भी मुलायम सिंह सरकार को बिना शर्त समर्थन दे रहे हैं। पर ताजा हालात जो बन रहे हैं, उससे लगता है कि अब कांग्रेस ममता को किनारे लगाएगी और मुलायम को सरकार के अंदर लाने की पूरी कोशिश होगी। इतना नहीं मुलायम को कुछ अच्छे मंत्रालयों की भी पेशकश की जा सकती है। बहरहाल मामले चल रहे हैं, अभी कुछ भी अंतिम नहीं हो सकता है, पर ममता की मुश्किल जरूर बढने वाली है।   
   

Tuesday, June 12, 2012

प्रणव दा के राष्ट्रपति बनने की कीमत ....

रीब करीब अब तय हो गया है कि केंद्र सरकार में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ही यूपीए की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे। छोटी मोटी बातों की अनदेखी कर दी जाए तो श्री मुखर्जी की छवि आमतौर पर साफ सुथरी ही है। अगर मुखर्जी उम्मीदवार होते हैं, तो मुझे लगता नहीं रायसीना हिल यानि राष्ट्रपति भवन पहुंचने में उन्हें किसी तरह की दिक्कत होगी। यूपीए के साथ ही मुझे नहीं लगता कि एनडीए को भी श्री मुखर्जी से कोई दिक्कत है। जानकार तो कह रहे हैं कि दादा के राष्ट्रपति बनाने की जो भी कीमत चुकानी होगी, वो चुकाने के लिए सरकार तैयार है, बस जनता में ऐसा मैसेज ना जाए, इसी पर बातचीत चल रही है। 
चुनाव की अधिसूचना भले ही आज जारी हुई हो पर इस चुनाव की बिसात कई दिन से बिछाई जा रही हैं। चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के बाद अब राजनीतिक दलों ने अपने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए हैं। रंग क्या, चलिए साफ साफ बताते हैं चुनाव में यूपीए उम्मीदवार का समर्थन करने के लिए स्पेशल पैकेज के नाम पर पैसे की मांग हो रही है। जब राष्ट्रपति जैसे अहम चुनाव के लिए भी राजनीतिक दल सौदेबाजी कर रहे हैं तो दूसरे काम के लिए भला क्यों नहीं करते होंगे?
सच्चाई क्या है ये तो यूपीए चेयरमैन सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री जानें। पर जनता में जो संदेश जा रहा है उससे तो साफ है कि ममता और मुलायम ने सरकार को बंधक बना रखा है। वैसे तो बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही ममता लगातार स्पेशल पैकेज की मांग कर रही हैं। उनकी ये मांग इसलिए भी पूरी नहीं हो पा रही है कि उनसे काफी पहले से बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार स्पेशल पैकेज की मांग कर रहे हैं, पर ये पैकेज उन्हें नहीं दिया गया। ऐसे में अगर ममता की बात मानी जाती है तो देश में गलत संदेश जाता। फिर ममता ने नया राग अलापना शुरू कर दिया, वो कह रही हैं कि उन्हें स्पेशल पैकेज के साथ ही केंद्र से लिए कर्ज 20 हजार करोड रुपये की ब्याज वसूली तीन साल के लिए बंद कर दी जाए। चुनाव तक ममता कितनी चीजें मांग लेंगी, कुछ भी कहना मुश्किल है। अच्छा मुलायम भी ममता से पीछे नहीं, भारी भरकम पैकेज तो उन्हें भी चाहिए। अब वित्तमंत्री को देखना है कि वो रायसीना हिल पहुंचने के लिए सरकारी खजाने में सेंध लगाते हैं या नहीं।
खैर बड़ा सवाल ये है कि क्या मुखर्जी से जो उम्मीदें सोनिया गांधी को हैं, वो पूरी होंगी ? जबकि सबको पता है कि प्रणव दा कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेता रहे हैं, सच कहूं तो मनमोहन सिंह के बजाए प्रवण दा को ही प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था। पर कहते हैं ना कि दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व नरसिम्हा राव ने जिस तरह गांधी परिवार को उन्हीं के घर में ही समेट कर रख दिया था, उसके बाद सोनिया कभी भी प्रणव को प्रधानमंत्री नहीं बना सकतीं थीं। उन्हें तलाश थी ऐसे आदमी की जिसके शरीर में शरीर की सबसे जरूरी हड्डी यानि रीढ़ की हड्डी ना हो। इसके लिए उन्होंने मनमोहन सिंह का चयन किया, और मैं दाद देता हूं सोनिया गांधी का कि उनका चयन बिल्कुल गलत नहीं था, मनमोहन से वफादार कोई और हो ही नहीं सकता था। बहरहाल कुछ भी हो, पर एक टीस दादा के मन में तो है ही, कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने से एक साजिश के तहत रोका गया। इसीलिए शायद उन्होंने रायसीना हिल के लिए हामी भर दी होगी, क्योंकि 7 आरसीआर तो उन्हें कांग्रेस भेजने वाली नहीं। अब राहुल गांधी इसके लिए लगभग तैयार हैं, दादा ने सोचा कि कल के छोकरे के अधीन काम करने से तो अच्छा है कि राष्ट्रपति ही बन जाएं। 
            
चलते-चलते

राष्ट्रपति चुनाव को ममता और मुलायम ने जितना गंदा नहीं किया, उससे ज्यादा गंदा कर दिया पूर्व स्पीकर पीए संगमा ने। वैसे तो सब जानते हैं कि चुनाव कोई भी हो, वहां जाति पाति की बात होती ही है। ए पी जे अबुल कलाम भी राष्ट्रपति इसलिए नहीं बने थे कि वो बहुत ज्यादा काबिल थे, बल्कि वो मुसलमान थे, ये उनके पक्ष में गया था। लेकिन ये बात खुलकर किसी ने कही नहीं थी। लेकिन संगमा को क्या हो गया है, ये पढे लिखे हैं, काफी समय तक सक्रिय राजनीति में रहे हैं और यहां दिल्ली में खुलकर कह रहे हैं कि एक बार आदिवासी को भी राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। चलो भाई आदिवासी को ही बनाते हैं, तो ऐसा नहीं है ना का आप ही 24 कैरेट के आदिवासी हैं। बहुत सारे आदिवासी नेता हैं, जो इस पद के काबिल है। लेकिन इन्होंने जिस तरह से छुटभैये नेता की तरह उम्मीदवार बनने के लिए नेताओं को चौखटें चाटी उसके बाद तो इन्हें राष्टपति तो दूर राष्टपति भवन में क्लर्क बनाना भी गलत होगा। इनके चक्कर में इनकी बेटी आगाथा जो एनसीपी के कोटे से केंद्र में राज्यमंत्री है, उसे भी पार्टी की खरी खोटी सुननी पड़ गई।