Friday, May 31, 2013

नक्सल : निशाने पर अब नेता !

ज बात नक्सली आंदोलन पर करूंगा। बात की शुरुआत करूं, इसके पहले ये साफ कर देना बेहतर होगा कि व्यक्तिगत तौर पर मैं हिंसा के सख्त खिलाफ हूं, मेरा मानना है कि किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं हो सकती। जितनी जिम्मेदारी से मैं ये बात कह रहा हूं, उतनी ही जिम्मेदारी से मैं ये भी कहना चाहता हूं कि इस बिगड़ते हालात के लिए राजनेता और उनकी दो कौड़ी की राजनीति जिम्मेदार है। आप देख रहे हैं कि इस बार नक्सली हमले में कांग्रेस नेता मारे गए हैं तो देश में इतनी हाय तौबा मची हुई है। यही गंभीरता सरकार ने लगभग साल भर पहले उस समय दिखाई होती, जब नक्सली हमले में 76 सुरक्षाकर्मी मारे गए थे, तो शायद कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को हमले से बचाया जा सकता था। मैं देख रहा हूं कि सरकार नक्सलियों को देश के लिए गंभीर खतरा तो बता रही है, लेकिन इस खतरे से निपटने के लिए कर क्या रही है, इसका कोई जवाब उसके पास नहीं है। खैर अब कुछ ना कुछ सरकार जरूर करेगी, क्योंकि नक्सल आंदोलन तीसरे चरण में पहुंच चुका है, जिसमें राजनेताओं पर ही हमला होना है। 


नक्सल आंदोलन के जनक दार्जलिंग निवासी कानू सान्याल ने कर्सियांग के एमई स्कूल से 1946 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की,. बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। पढ़ाई छोड़ने के बाद ही उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली, लेकिन कुछ ही दिनों बाद बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। 1964 में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। बताते हैं कि 1967 में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। सान्याल ने जीवन के लगभग 14 साल जेल में ही गुजार दिए। वैसे सान्याल को देश में माओवादी संघर्ष को दिशा देने का श्रेय जाता है। 81 साल की उम्र में सान्याल की मृत्यु हो गई, कहा गया कि उन्होंने घर में ही फांसी लगा ली। सच तो यही है कि जीवन के आखिर समय में सान्याल को भी यह आभास हो गया था कि समस्याओं का समाधान बातचीत से ही संभव है। आतंकवाद और हिंसा से किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता।


बहरहाल आंदोलन के जनक सान्याल ने भी ये नहीं सोचा होगा कि जिस आंदोलन का बीज वह बो रहे हैं, ये आगे चलकर देश की कानून व्यवस्था के लिए इतना बड़ा खतरा बन जाएगा।
हम सब देख रहे हैं कि हाल के कुछ सालों में नक्सली हिंसा की समस्या काफी गंभीर हो चुकी है। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी मुश्किल बनती जा रही है। मध्य भारत में नक्सल आंदोलन का काफी अंदर तक विस्ता़र हो चुका है, जिसे हम लाल गलियारे के नाम से जानते हैं। वैसे तो इस आंदोलन की शुरुआत एक विचारधारा के स्तर पर हुई थी। नक्सल हिंसा की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, पर उस समय इसका स्वरूप इतना भयानक नहीं था जितना आज है। आए दिन नक्सल प्रभावित राज्यों में कभी सुरक्षा बलों के जवानों तो कभी निर्दोष नागरिकों की हत्या की जा रही है। हैरानी इस बात की है कि इसके बाद भी इस गंभीर समस्या का हल निकालने की ठोस पहल आज तक शुरू ही नहीं की गई। नक्सली अपने हितों को साधने के लिए आदिवासियों के क्षेत्र और उनकी समस्याओं का सहारा ले रहे हैं।  झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र समेत राज्यों में माओवादी कैडरों ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि इसे सिर्फ सुरक्षा बलों के सहारे तो बिल्कुल खत्म नहीं किया जा सकता।


खैर नक्सल आंदोलन के बारे में आप वैसे भी बहुत कुछ जानते होंगे। इसके बारे में आए दिन पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही ब्लाग पर भी तमाम लेख प्रकाशित होते रहते हैं। मैं आपको कुछ पुरानी बातें याद दिलाना चाहता हूं। आंदोलन की शुरुआत में एक टारगेट फिक्स करने के साथ ही आंदोलन की रुपरेखा तैयार की गई थी। जिसमें तय किया गया था कि पहले चरण में सेठ, साहूकारों को लूटने और लूटा माल आदिवासियों में बांटा जाएगा। हमने देखा भी एक समय था जब नक्सलियों ने सेठ, साहूकारों का जीना मुहाल कर दिया, आए दिन लूट की घटनाएं सामने आती रहीं। दूसरे चरण में रेलवे, सुरक्षाबलों और जेलों पर हमला करना था। इसका मकसद था कि ऐसा करने से देश भर में उनकी मौजूदगी साबित हो जाएगी। नक्सलियों ने हालत ये कर दी कि बिहार में जेलों पर हमला किया, बंगाल में कई बार विस्फोट कर रेल की पटरी उड़ा दी, राजधानी जैसी ट्रेन को घंटो अपने कब्जे में रखा। वैसे तो सुरक्षा बलों पर हमला कर वो इनकी हत्या करते ही रहे हैं, लेकिन साल भर पहले छत्तीसगढ में एक भारी हमले में 76 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। नक्सलियों ने आंदोलन के अपने दो चरणों से ही देश को हिला दिया था। लेकिन उनका तीसरी और अंतिण चरण यानि चौथा काफी खतरनाक और गंभीर भी है।


आंदोलन के तीसरे चरण में नक्सलियों के निशाने पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता हैं। कहा तो ये जा रहा है कि छत्तीसगढ में सुकुना में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर उन्होंने अपने तीसरे चरण की शुरूआत कर दी है। गृहमंत्रालय ने भी माना है कि नक्सलियों के निशाने पर देश के कई बड़े नेताओं के नाम शामिल हैं। इसमें नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत करने वाले पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम का नाम भी शामिल है। इसके अलावा कई और नेताओं के नाम इस हिट लिस्ट में शामिल बताए जा रहे है। सुकुना में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले के पहले नक्सलियों ने कभी राजनीतिक दलों के नेताओं, उनकी सभाओं या अन्य किसी भी कार्यक्रमों में बाधा नहीं डालते थे। पहली बार कांग्रेस की परिवर्तना यात्रा पर इतना बड़ा हमला कर कई नेताओं और कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारा गया। बहरहाल अगर ये मान लिया जाए कि इस हमले से उन्होंने अपने आंदोलन की तीसरे चरण की शुरुआत की है तो सरकार को और सतर्क होने की जरूरत है। सतर्क इसलिए भी नक्सलियों का चौथा यानि अंतिम चरण काफी खतरनाक है। इसमें दिल्ली मार्च पास्ट और राष्ट्रपति भवन पर लाल झंडा फहरा कर देश पर कब्जा करना है। हालांकि अभी हम ये कह सकते हैं कि अभी दिल्ली बहुत दूर है, लेकिन सच कहूं तो उनकी ताकत जिस तरह से बढ़ती जा रही है, उससे लगता है कि वो अपनी मंजिल के काफी करीब आ गए हैं।


नक्सल आंदोलन को लेकर केंद्र की सरकार वोटों की राजनीति कर रही है। उसे लग रहा है कि अगर नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन चलाया गया तो चुनाव में इसका नतीजा भुगतना होगा। नक्सलियों से बातचीत भी शुरू हो नहीं पा रही है। सरकार का कहना है कि पहले हथियार डालो, फिर बात करेंगे। इसके लिए नक्सली तैयार नहीं है। वो कहते हैं पहले बातचीत करो, समस्याओं का समाधान करो, फिर हथियार डालेंगे। खैर इस मामले में मैं सरकार के साथ हूं, हिंसा के बीच बातचीत शुरू करने का कोई मतलब ही नहीं है। ऐसे में मुझे तो लगता नहीं कि आने वाले समय में भी अब ये मामला बात चीत से हल होने वाला है। मेरा तो मानना है कि ये आंदोलन अब नक्सलियों के कब्जे में भी नहीं रह गया है। नक्सल आंदोलन के नाम पर इन्हें गुमराह किया जा रहा है। इस आंदोलन के लिए इन्हें बाहर से ना सिर्फ आर्थिक मदद मिल रही है, बल्कि अत्याधुनिक हथियार और गोले बारूद की भी सप्लाई की जा रही है। मुझे लगता है कि इनके खिलाफ सख्त आपरेशन चलाने में सरकार की ये मुश्किल हो सकती है कि इसमें तमाम बेगुनाह भी मारे जा सकते हैं। लेकिन सबको पता है कि जो आर्थिक मदद और हथियार इन्हें नेपाल के रास्ते मिलते हैं। इस पर आखिर रोक लगाने के लिए अब तक सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की गई ? वैसे भी नक्सली अब जिस हद तक बढ़ चुके हैं, उसमें बातचीत का रास्ता लगभग बंद है और सरकार को सख्ती से ही निपटना होगा। इसमें अगर कुछ बेगुनाह मारे जाते हैं तो इसकी चिंता भी छोड़नी होगी। क्योंकि उनकी तरफ से हो रहे हमले में भी तो बेगुनाह ही मारे जा रहे हैं।




Sunday, May 26, 2013

अजित जोगी : मुख्यमंत्री बनने की ऐसी जल्दबाजी !

देश के अलग-अलग हिस्सों में नक्सली हमला होता रहा है, इसमें सुरक्षा बलों के साथ ही बड़ी संख्या में आम आदमी भी अपनी जान गवां चुके हैं। देखा जा रहा था कि नक्सलियों ने आज तक कभी भी किसी राजनीतिक को अपना निशाना नहीं बनाया था। इसलिए जब रात में खबर आई कि छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने कांग्रेस की "परिवर्तन यात्रा" को निशाना बनाकर हमला किया और इसमें कुछ बड़े नेताओं के साथ ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मौत हो गई। ये खबर सभी के लिए चौंकाने वाली थी। इस खबर की जानकारी जैसे ही मुख्यमंत्री रमन सिंह को हुई, उन्होंने अपनी विकास यात्रा रद्द की और मुख्यालय रायपुर वापस आ गए। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री से बात की, उन्हें भरोसा दिलाया कि केंद्र से हर संभव मदद की जाएगी। सोनिया गांधी ने इस हमले को लोकतंत्र पर हमला बताया, बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने हमले की निंदा की और कहाकि इस पर दलगत राजनीति ऊपर उठकर ठोस पहल करने की जरूरत है। कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी रात डेढ़ बजे ही रायपुर पहुंच कर घायलों से मुलाकात की और उनकी परेशानी को बांटने की कोशिश की। इन सबके बीच कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी को यहां भी सियासत सूझ रही थी और वो हमले की खबर मिलते ही सबसे पहले उन्होंने मुख्यमंत्री का इस्तीफा मांगा। इतना ही नहीं देर रात में ही वो कुछ लोगों के साथ राजभवन पहुंच गए और राज्यपाल से कहा कि दो मिनट में इस सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश केंद्र को भेजें।

वैसे तो नक्सलियों का ये हमला कल शाम लगभग साढ़े चार बजे के करीब हुआ, लेकिन न्यूज चैनलों पर ये खबर करीब साढ़े आठ बजे आई। इस दौरान लगभग सभी न्यूज चैनल बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन पर राशन पानी लेकर चढ़े हुए थे। खबरिया चैनलों का एजेंडा था कि श्रीनिवासन का इस्तीफा लेकर रहेंगे, जबकि श्रीनिवासन को बीसीसीआई में अपने चंपू सदस्यों पर पूरा भरोसा है कि वो किसी भी सूरत में उनका साथ नहीं छोड़ने वाले हैं, तो भला वो इस्तीफा क्यों दें ? खैर नक्सली हमले के बाद अगर किसी ने सबसे ज्यादा राहत की सांस ली होगी तो वो हैं, एन श्रीनिवासन ! वजह और कुछ नहीं, बस कई दिन से खबरिया चैनल टीवी स्क्रिन पर उनकी तस्वीर लगाकर रोजाना नए-नए आरोप जड़ते जा रहे थे। लेकिन इस हमले के बाद सभी टीवी स्क्रिन से उनकी तस्वीर एक झटके में उतर गई। जाहिर है उन्होंने रात में अच्छी नींद ली होगी, क्योंकि उन्हें पता है कि अब उनकी तस्वीर एक बार उतर गई है तो दोबारा चढ़ने में टाइम लगेगा। 

खैर मुद्दे पर वापस आते हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले की जितनी निंदा की जाए वो कम है। अच्छा इसे किसी एक राज्य का विषय बताना हकीकत से मुंह छिपाना है। सच्चाई ये है कि आज उग्रवादियों से कहीं ज्यादा खतरनाक हो गए हैं ये नक्सली। सही तो ये है कि अगर इन्हें आतंकवादी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। छत्तीसगढ़ में इस नक्सली हमले के बाद मेरे एक पत्रकार मित्र का फोन आया, उनके तमाम मित्र उसी राज्य के निवासी हैं। बताने लगे कि यहां लगभग 30 से 40 लोगों की मौत हुई है, ये बहुत बड़ी घटना है। मैं भी अपने संपर्कों को कुरेदने लगा। इस दौरान चैनलों की खबरें भी देखता रहा। सबसे ज्यादा हैरानी मुझे पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी की करतूतों को देखकर हुई। मैं देख रहा हूं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो लगातार मुख्यमंत्री रमन सिंह से बात कर उन्हें पूरी मदद का भरोसा दिला रहे हैं। मुख्यमंत्री केबिनेट की बैठक कर पुलिस अधिकारियों को निर्देश दे रहे हैं कि घायलों को जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचाया जाए। जो नेता नक्सलियों के कब्जे में हैं, उन्हें हर हाल में छुड़ाने की कोशिश की जाए। सोनिया गांधी समेत तमाम कांग्रेस के नेता संयम से बोल रहे थे, उन्हें पता है कि ये समय राजनीति करने का नहीं है। लेकिन इन सबके उलट अजित जोगी रात में सियासत की गोटी फिट करने में जुट गए।

चैनलों पर जोगी की जो हालत रात में देगी गई, उससे लगा कि वो मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए कितने बेचैन और भूखे हैं। उन्हें ये फिक्र बिल्कुल नहीं थी कि इस नक्सली हमले में उनकी पार्टी के घायल साथियों की तबियत कैसी है, उनका इलाज कैसा चल रहा है। जंगल में फंसे लोगों को कैसे सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया जाए ? उन्होंने तो मीडिया को देखते ही सबसे पहले मुख्यमंत्री रमन सिंह का इस्तीफा मांग लिया। कहाकि अब रमन सिंह सूबे का मुख्यमंत्री बने रहने का कोई हक नहीं है। इल्जाम लगाया कि उन्होंने अपनी विकास यात्रा में पूरी सुरक्षा झोंक दी, जबकि कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में कोई सुरक्षा नहीं दी गई। जोगी कि इस बात में दम हो सकता है कि कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था ना रही हो, लेकिन मैं जोगी कि जल्दबाजी से आहत था। उन्होंने रात में ही तीन बातें कहीं ।

1. रमन सिंह तत्काल इस्तीफा दें, ना दें तो बर्खास्त किया जाए। 
2. परिवर्तन यात्रा जारी रहेगी, हम डरने वाले नहीं है। 
3. रविवार को छत्तीसगढ़ बंद रहेगा। 

भाई जोगी जी आपसे सवाल है, आप रमन सरकार को बर्खास्त करने की मांग को लेकर रात में ही राजभवन पहुंच गए। कैमरे पर भावुक होने का "ड्रामा" भी करते रहे। लेकिन आप पार्टी की यात्रा को लेकर इतने ही गंभीर थे, तो आज आपको सुबह ही वहां पहुंच कर यात्रा की कमान संभाल लेनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा आपने नहीं किया। क्या सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें भर करते हैं या उस पर अमल करने का प्रयास भी। वैसे मैं भी देखना चाहता था कि आज आप परिवर्तन यात्रा लेकर आगे बढ़ते हैं तो आपके साथ आपकी पार्टी खड़ी होती भी है या नहीं। लेकिन आप खुद ही गायब  हो गए। छत्तीसगढ़ को बंद करने आह्वान किया है, उसके लिए भी आप ने बस चैनलों पर बोलकर चुप हो गए। अच्छा कल रात तक तो आप बहुत बक-बक कर रहे थे, लेकिन रविवार को आपकी चुप्पी सूबे की जनता को समझ में नहीं आ रही है। वैसे जोगी जी आप काफी समय तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं, कहा तो यहां तक जा रहा है, नक्सलियों के आप से भी बहुत अच्छे संबंध हैं। फिर आप तो हमले के घंटे भर पहले इस काफिले में खुद भी मौजूद थे, अचानक आप वहां से वापस आ गए। बहरहाल जोगी की जल्दबाजी देखकर जरूरी तो ये भी है उनकी भूमिका की भी अच्छी तरह से जांच होनी चाहिए। 

वैसे हमले की वजह जो पहली नजर में सामने आ रही है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता महेन्द्र कर्मा जो छत्तीसगढ में नेता विपक्ष भी थे। उन्होंने नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम आंदोलन की शुरुआत की, इसके बाद भी वो नक्सलियों के निशाने पर थे। माना जा रहा है कि ये हमला भी महेन्द्र कर्मा की ही हत्या के लिए था, लेकिन हमले में और लोग भी मारे गए। नक्सलियों ने जिस तरह से उनके शरीर पर पूरी मैग्जीन खाली कर दी  है, इससे उनके गुस्से का अंदाजा लगाया जा सकता है। बहरहाल जोगी की जल्दबादी ने राजनीतिक बेशर्मी को उजागर कर दिया।  







  

Thursday, May 23, 2013

... तो समझ लें दाल में कुछ काला है !

आईपीएल पर बहुत बात हो रही है। कहा जा रहा है कि देखने में तो ऐसा लग रहा है कि ये  खेल मैदान में हो रहा है और मैंच का फैसला मैदान में अंपायर करता है। लेकिन दिल्ली और मुंबई पुलिस के अब तक जो सबूत हाथ लगे हैं, उससे इतना तय हो गया है कि मैदान पर जो खेल हो रहा था, वो दर्शकों की आंख में धूल झोंकने वाला था, दरअसल खेले जा रहे मैंच का ब्लूप्रिंट पहले ही किसी पांच सितारा होटल में तय चुका होता था। अंपायर की उंगली महज एक खानापूरी भर थी, क्योंकि असली अंपायर तो सात समुंदर पार बैठकर आईपीएल के कर्ताधर्ताओं, बीसीसीआई, टीमों की फ्रैंचाइजी और खिलाड़ियों को अपनी उंगली पर नचा रहा था। वैसे तो अभी पुलिस के हत्थे छोटे मोटे खिलाड़ी ही लगे हैं। लेकिन जिस तरह से एक एक कर तार जुड़ रहे हैं, उससे तो लगता है कि आईपीएल के पीछे एक बहुत संगठित गिरोह काम कर रहा है। बिंदुदारा सिंह के साथ भारतीय टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी की पत्नी साक्षी ने एक साथ बैठ कर मैच क्या देख लिया, लोग उसकी भूमिका पर सवाल खड़े कर रहे हैं। चूंकि उंगली उठी है तो साक्षी को खुद पुलिस के सामने आकर अपनी जांच करने को कहना चाहिए, जिससे धोनी पर उंगली ना उठे। 

हालांकि देश की पुलिस छवि बहुत ज्यादा खराब है, इसलिए हम आसानी से उनकी बातों पर भरोसा नहीं होता है। अब एक ओर ये भी कहा जा रहा है कि आईपीएल के इस पूरे गोरखधंधे में पुलिस भी कहीं ना कहीं हिस्सेदार रही है। ऐसा नहीं हो सकता कि इतने बड़े पैमाने पर सट्टेबाजी हो और पुलिस को इसकी भनक ना लगे। चर्चा हो रही है कि इधर दिल्ली पुलिस पर तमाम उंगली उठ रही थी, दिल्ली में बलात्कार की घटना के बाद तो लोगों का गुस्सा उबाल पर था। यहां आम आदमी से लेकर नेता तक पुलिस कमिश्नर का इस्तीफा मांग रहे थे। कहा जा रहा है कि पुलिस ने जनता का ध्यान हटाने के लिए इसी वक्त इस मामले का खुलासा कर दिया। दिल्ली ने अपने इलाके के बजाए मुंबई जाकर वहां से खिलाड़ियों को गिरफ्तार किया। अब हालत ये है कि रोजाना नए नए खुलासे हो रहे हैं।

सट्टेबाजी में अब तक आईपीएल के खिलाड़ी, फ्रैंचाइजी, अभिनेता, अभिनेत्री, पूर्व क्रिकेटर, अंपायर, कमेंट्रेटर  के साथ ही अब बीसीसीआई चेयरमैन के करीबी रिश्तेदारों तक पुलिस के हाथ पहुंच गए हैं। सट्टेबाजी के मामले में किसी तरह की कार्रवाई करने से जिस तरह से बीसीसीआई खुद को अलग कर रही है, उससे उसकी भूमिका पर उंगली उठना स्वाभाविक है। हम सब जानते हैं कि " बाँडी लंग्वेज " से बहुत कुछ जवाब मिल जाता है। अब आज की बात ले लीजिए, आईपीएल कमिश्नर राजीव शुक्ला से  बीसीसीआई चेयरमैन श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन से होने वाली पूछताछ के मामले में पत्रकार मित्र सवाल तो हिंदी में कर  रहे थे, लेकिन शुक्ला जी जवाब अंग्रेजी में दे रहे हैं। " बाँडी लंग्वेज " पढ़ने वाले बताते हैं कि हिंदी भाषी इलाके का कोई व्यक्ति तो अंग्रेजी से ज्यादा बेहतर हिंदी बोलता है, अगर वो जब हिंदी के सवाल का अंग्रेजी में जवाब दे तो समझा जाना चाहिए कि दाल मे कुछ काला जरूर है। पूर्व आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी कहते रहे हैं कि राजीव शुक्ला कुछ नहीं बस  श्रीनिवासन के तोता हैं, ये मामला अब दिखने भी लगा है। आगे आगे देखिए क्या होता है।  



Saturday, May 11, 2013

बस ! अब बक- बक ना करो मां ...

काफी दिनों से मां की तबियत ठीक नहीं है, वो पास के मेडिकल स्टोर से दवा मंगा-मंगा कर किसी तरह अपने को ठीक दिखाई देने की कोशिश करती रही। चूंकि बेटा मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे पद पर है, उसकी जिम्मेदारी इतनी ज्यादा है कि घर के लिए उसके पास वक्त ही नहीं है। बेटे की व्यस्तता को मां देखती है कि उसके पास ना खाने की फुर्सत और ना ही आराम का कोई वक्त। ऐसे में मां को लगा कि जब दवा से तबियत ठीक है तो काहे को वो बेटे को अपनी तबियत खराब बताकर उसे मुश्किल में डाले। लेकिन अब उसकी परेशानी बढ़ती जा रही थी। मां को भी लग रहा था कि ऐसे काफी दिन नहीं चल सकता, किसी अच्छे डाक्टर को दिखाकर ही दवा लेना होगा। रोज-रोज ऐसे ही दवा मंगाकर खाना ठीक भी तो नहीं है। मां ने सोचा कि 12 मई को रविवार है, बेटे के आफिस की छुट्टी होगी, वो घर पर ही रहेगा। उसी दिन उसे बताऊंगी और उसके साथ ही डा. मल्होत्रा के पास चली जाऊंगी। वैसे भी 12 को "मदर्स डे" है तो बेटे को मां की सेवा करके अच्छा लगेगा। मदर्स डे के दिन आखिर बेटे को मां की सेवा करने का अवसर मिल जाए तो भला इससे बड़ी क्या बात हो सकती है।


आज मां की नींद सुबह ही खुल गई, वो स्नान, ध्यान और पूजा पाठ करके बेटे के सोकर उठने का इंतजार करने लगी। सुबह 10 बजने तक मां तीन बार उसके कमरे में झांक आई कि वो उठा या नहीं। चूंकि बेटा गहरी नींद में था, लिहाजा मां ने उसे उठाया नहीं। 11 बजे वो सोकर उठा और बाथरूम चला गया, वहां से आने के बाद चाय पी और उसके बाद वो अपने कमरे में लैपटाप लेकर बैठ गया। मां को अटपटा लगा कि आज तो बेटे ने "मदर्स डे" भी विश नहीं किया, भला इतना जरूरी क्या काम कर रहा है। मां की आंख में आंसू आ गए, उसे लगा कि क्या अब बेटा इतना बिजी हो गया है कि उसके पास मेरे लिए इतना वक्त भी नहीं है।


खैर वो बेटे के कमरे गई और बोली बेटा दो मिनट बात करनी है। बेटे ने मां की ओर देखे बगैर कहा, हां बोलो मां ! बेटा मैं देखती हूं कि तुम इतने बिजी रहते हो कि अपनी तबियत तक तुझसे नहीं बता पाई। मेरी तबियत ठीक नहीं है, हो सके तो आज मुझे डाक्टर के पास ले चल। मां का इतना कहना था कि बेटा एक दम से बिफर गया, बोला मां तू मुझे एक दिन भी घर पर नहीं देख सकती। तुम्हें पता है ना कि आज "मदर्स डे" है, अब तक फेसबुक पर सभी फ्रैंड्स के स्टेट्स अपडेट हो चुके होंगे, मैं वैसे ही कितना लेट हो चुका हूं। क्या सोचेंगे लोग मेरे बारे में कि मैं मां को बिल्कुल प्यार ही नहीं करता हूं, तुम जाओ आराम करो, आज मेरे पास बिल्कुल टाइम नहीं है। अभी मैं अपना स्टेटस अपडेट करूंगा, फिर दूसरों के फेसबुक वाल पर मुझे कमेंट भी करना है। दोस्तों के फेसबुक वाल पर जाकर उनकी मां को विश नहीं किया तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे ?
ठीक है ना, कल आफिस जाकर मैं ड्राईवर को वापस भेज दूंगा वो तुम्हें डाक्टर के पास ले जाएगा। बस ! अब बक- बक मत करो ! 



( ये कहानी हिंदी में जरूर है, पर हिंदुस्तान की नहीं है, मुझे नहीं लगता है कि हिंदुस्तान के किसी कोने में ऐसा बेटा होगा !)