आज बात नक्सली आंदोलन पर करूंगा। बात की शुरुआत करूं, इसके पहले ये साफ कर देना बेहतर होगा कि व्यक्तिगत तौर पर मैं हिंसा के सख्त खिलाफ हूं, मेरा मानना है कि किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं हो सकती। जितनी जिम्मेदारी से मैं ये बात कह रहा हूं, उतनी ही जिम्मेदारी से मैं ये भी कहना चाहता हूं कि इस बिगड़ते हालात के लिए राजनेता और उनकी दो कौड़ी की राजनीति जिम्मेदार है। आप देख रहे हैं कि इस बार नक्सली हमले में कांग्रेस नेता मारे गए हैं तो देश में इतनी हाय तौबा मची हुई है। यही गंभीरता सरकार ने लगभग साल भर पहले उस समय दिखाई होती, जब नक्सली हमले में 76 सुरक्षाकर्मी मारे गए थे, तो शायद कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को हमले से बचाया जा सकता था। मैं देख रहा हूं कि सरकार नक्सलियों को देश के लिए गंभीर खतरा तो बता रही है, लेकिन इस खतरे से निपटने के लिए कर क्या रही है, इसका कोई जवाब उसके पास नहीं है। खैर अब कुछ ना कुछ सरकार जरूर करेगी, क्योंकि नक्सल आंदोलन तीसरे चरण में पहुंच चुका है, जिसमें राजनेताओं पर ही हमला होना है।
नक्सल आंदोलन के जनक दार्जलिंग निवासी कानू सान्याल ने कर्सियांग के एमई स्कूल से 1946 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की,. बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। पढ़ाई छोड़ने के बाद ही उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली, लेकिन कुछ ही दिनों बाद बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। 1964 में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। बताते हैं कि 1967 में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। सान्याल ने जीवन के लगभग 14 साल जेल में ही गुजार दिए। वैसे सान्याल को देश में माओवादी संघर्ष को दिशा देने का श्रेय जाता है। 81 साल की उम्र में सान्याल की मृत्यु हो गई, कहा गया कि उन्होंने घर में ही फांसी लगा ली। सच तो यही है कि जीवन के आखिर समय में सान्याल को भी यह आभास हो गया था कि समस्याओं का समाधान बातचीत से ही संभव है। आतंकवाद और हिंसा से किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता।
बहरहाल आंदोलन के जनक सान्याल ने भी ये नहीं सोचा होगा कि जिस आंदोलन का बीज वह बो रहे हैं, ये आगे चलकर देश की कानून व्यवस्था के लिए इतना बड़ा खतरा बन जाएगा।
हम सब देख रहे हैं कि हाल के कुछ सालों में नक्सली हिंसा की समस्या काफी गंभीर हो चुकी है। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी मुश्किल बनती जा रही है। मध्य भारत में नक्सल आंदोलन का काफी अंदर तक विस्ता़र हो चुका है, जिसे हम लाल गलियारे के नाम से जानते हैं। वैसे तो इस आंदोलन की शुरुआत एक विचारधारा के स्तर पर हुई थी। नक्सल हिंसा की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, पर उस समय इसका स्वरूप इतना भयानक नहीं था जितना आज है। आए दिन नक्सल प्रभावित राज्यों में कभी सुरक्षा बलों के जवानों तो कभी निर्दोष नागरिकों की हत्या की जा रही है। हैरानी इस बात की है कि इसके बाद भी इस गंभीर समस्या का हल निकालने की ठोस पहल आज तक शुरू ही नहीं की गई। नक्सली अपने हितों को साधने के लिए आदिवासियों के क्षेत्र और उनकी समस्याओं का सहारा ले रहे हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र समेत राज्यों में माओवादी कैडरों ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि इसे सिर्फ सुरक्षा बलों के सहारे तो बिल्कुल खत्म नहीं किया जा सकता।
खैर नक्सल आंदोलन के बारे में आप वैसे भी बहुत कुछ जानते होंगे। इसके बारे में आए दिन पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही ब्लाग पर भी तमाम लेख प्रकाशित होते रहते हैं। मैं आपको कुछ पुरानी बातें याद दिलाना चाहता हूं। आंदोलन की शुरुआत में एक टारगेट फिक्स करने के साथ ही आंदोलन की रुपरेखा तैयार की गई थी। जिसमें तय किया गया था कि पहले चरण में सेठ, साहूकारों को लूटने और लूटा माल आदिवासियों में बांटा जाएगा। हमने देखा भी एक समय था जब नक्सलियों ने सेठ, साहूकारों का जीना मुहाल कर दिया, आए दिन लूट की घटनाएं सामने आती रहीं। दूसरे चरण में रेलवे, सुरक्षाबलों और जेलों पर हमला करना था। इसका मकसद था कि ऐसा करने से देश भर में उनकी मौजूदगी साबित हो जाएगी। नक्सलियों ने हालत ये कर दी कि बिहार में जेलों पर हमला किया, बंगाल में कई बार विस्फोट कर रेल की पटरी उड़ा दी, राजधानी जैसी ट्रेन को घंटो अपने कब्जे में रखा। वैसे तो सुरक्षा बलों पर हमला कर वो इनकी हत्या करते ही रहे हैं, लेकिन साल भर पहले छत्तीसगढ में एक भारी हमले में 76 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। नक्सलियों ने आंदोलन के अपने दो चरणों से ही देश को हिला दिया था। लेकिन उनका तीसरी और अंतिण चरण यानि चौथा काफी खतरनाक और गंभीर भी है।
आंदोलन के तीसरे चरण में नक्सलियों के निशाने पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता हैं। कहा तो ये जा रहा है कि छत्तीसगढ में सुकुना में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर उन्होंने अपने तीसरे चरण की शुरूआत कर दी है। गृहमंत्रालय ने भी माना है कि नक्सलियों के निशाने पर देश के कई बड़े नेताओं के नाम शामिल हैं। इसमें नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत करने वाले पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम का नाम भी शामिल है। इसके अलावा कई और नेताओं के नाम इस हिट लिस्ट में शामिल बताए जा रहे है। सुकुना में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले के पहले नक्सलियों ने कभी राजनीतिक दलों के नेताओं, उनकी सभाओं या अन्य किसी भी कार्यक्रमों में बाधा नहीं डालते थे। पहली बार कांग्रेस की परिवर्तना यात्रा पर इतना बड़ा हमला कर कई नेताओं और कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारा गया। बहरहाल अगर ये मान लिया जाए कि इस हमले से उन्होंने अपने आंदोलन की तीसरे चरण की शुरुआत की है तो सरकार को और सतर्क होने की जरूरत है। सतर्क इसलिए भी नक्सलियों का चौथा यानि अंतिम चरण काफी खतरनाक है। इसमें दिल्ली मार्च पास्ट और राष्ट्रपति भवन पर लाल झंडा फहरा कर देश पर कब्जा करना है। हालांकि अभी हम ये कह सकते हैं कि अभी दिल्ली बहुत दूर है, लेकिन सच कहूं तो उनकी ताकत जिस तरह से बढ़ती जा रही है, उससे लगता है कि वो अपनी मंजिल के काफी करीब आ गए हैं।
नक्सल आंदोलन को लेकर केंद्र की सरकार वोटों की राजनीति कर रही है। उसे लग रहा है कि अगर नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन चलाया गया तो चुनाव में इसका नतीजा भुगतना होगा। नक्सलियों से बातचीत भी शुरू हो नहीं पा रही है। सरकार का कहना है कि पहले हथियार डालो, फिर बात करेंगे। इसके लिए नक्सली तैयार नहीं है। वो कहते हैं पहले बातचीत करो, समस्याओं का समाधान करो, फिर हथियार डालेंगे। खैर इस मामले में मैं सरकार के साथ हूं, हिंसा के बीच बातचीत शुरू करने का कोई मतलब ही नहीं है। ऐसे में मुझे तो लगता नहीं कि आने वाले समय में भी अब ये मामला बात चीत से हल होने वाला है। मेरा तो मानना है कि ये आंदोलन अब नक्सलियों के कब्जे में भी नहीं रह गया है। नक्सल आंदोलन के नाम पर इन्हें गुमराह किया जा रहा है। इस आंदोलन के लिए इन्हें बाहर से ना सिर्फ आर्थिक मदद मिल रही है, बल्कि अत्याधुनिक हथियार और गोले बारूद की भी सप्लाई की जा रही है। मुझे लगता है कि इनके खिलाफ सख्त आपरेशन चलाने में सरकार की ये मुश्किल हो सकती है कि इसमें तमाम बेगुनाह भी मारे जा सकते हैं। लेकिन सबको पता है कि जो आर्थिक मदद और हथियार इन्हें नेपाल के रास्ते मिलते हैं। इस पर आखिर रोक लगाने के लिए अब तक सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की गई ? वैसे भी नक्सली अब जिस हद तक बढ़ चुके हैं, उसमें बातचीत का रास्ता लगभग बंद है और सरकार को सख्ती से ही निपटना होगा। इसमें अगर कुछ बेगुनाह मारे जाते हैं तो इसकी चिंता भी छोड़नी होगी। क्योंकि उनकी तरफ से हो रहे हमले में भी तो बेगुनाह ही मारे जा रहे हैं।
नक्सल आंदोलन के जनक दार्जलिंग निवासी कानू सान्याल ने कर्सियांग के एमई स्कूल से 1946 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की,. बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। पढ़ाई छोड़ने के बाद ही उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली, लेकिन कुछ ही दिनों बाद बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। 1964 में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। बताते हैं कि 1967 में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। सान्याल ने जीवन के लगभग 14 साल जेल में ही गुजार दिए। वैसे सान्याल को देश में माओवादी संघर्ष को दिशा देने का श्रेय जाता है। 81 साल की उम्र में सान्याल की मृत्यु हो गई, कहा गया कि उन्होंने घर में ही फांसी लगा ली। सच तो यही है कि जीवन के आखिर समय में सान्याल को भी यह आभास हो गया था कि समस्याओं का समाधान बातचीत से ही संभव है। आतंकवाद और हिंसा से किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता।
बहरहाल आंदोलन के जनक सान्याल ने भी ये नहीं सोचा होगा कि जिस आंदोलन का बीज वह बो रहे हैं, ये आगे चलकर देश की कानून व्यवस्था के लिए इतना बड़ा खतरा बन जाएगा।
हम सब देख रहे हैं कि हाल के कुछ सालों में नक्सली हिंसा की समस्या काफी गंभीर हो चुकी है। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी मुश्किल बनती जा रही है। मध्य भारत में नक्सल आंदोलन का काफी अंदर तक विस्ता़र हो चुका है, जिसे हम लाल गलियारे के नाम से जानते हैं। वैसे तो इस आंदोलन की शुरुआत एक विचारधारा के स्तर पर हुई थी। नक्सल हिंसा की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, पर उस समय इसका स्वरूप इतना भयानक नहीं था जितना आज है। आए दिन नक्सल प्रभावित राज्यों में कभी सुरक्षा बलों के जवानों तो कभी निर्दोष नागरिकों की हत्या की जा रही है। हैरानी इस बात की है कि इसके बाद भी इस गंभीर समस्या का हल निकालने की ठोस पहल आज तक शुरू ही नहीं की गई। नक्सली अपने हितों को साधने के लिए आदिवासियों के क्षेत्र और उनकी समस्याओं का सहारा ले रहे हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र समेत राज्यों में माओवादी कैडरों ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि इसे सिर्फ सुरक्षा बलों के सहारे तो बिल्कुल खत्म नहीं किया जा सकता।
खैर नक्सल आंदोलन के बारे में आप वैसे भी बहुत कुछ जानते होंगे। इसके बारे में आए दिन पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही ब्लाग पर भी तमाम लेख प्रकाशित होते रहते हैं। मैं आपको कुछ पुरानी बातें याद दिलाना चाहता हूं। आंदोलन की शुरुआत में एक टारगेट फिक्स करने के साथ ही आंदोलन की रुपरेखा तैयार की गई थी। जिसमें तय किया गया था कि पहले चरण में सेठ, साहूकारों को लूटने और लूटा माल आदिवासियों में बांटा जाएगा। हमने देखा भी एक समय था जब नक्सलियों ने सेठ, साहूकारों का जीना मुहाल कर दिया, आए दिन लूट की घटनाएं सामने आती रहीं। दूसरे चरण में रेलवे, सुरक्षाबलों और जेलों पर हमला करना था। इसका मकसद था कि ऐसा करने से देश भर में उनकी मौजूदगी साबित हो जाएगी। नक्सलियों ने हालत ये कर दी कि बिहार में जेलों पर हमला किया, बंगाल में कई बार विस्फोट कर रेल की पटरी उड़ा दी, राजधानी जैसी ट्रेन को घंटो अपने कब्जे में रखा। वैसे तो सुरक्षा बलों पर हमला कर वो इनकी हत्या करते ही रहे हैं, लेकिन साल भर पहले छत्तीसगढ में एक भारी हमले में 76 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। नक्सलियों ने आंदोलन के अपने दो चरणों से ही देश को हिला दिया था। लेकिन उनका तीसरी और अंतिण चरण यानि चौथा काफी खतरनाक और गंभीर भी है।
आंदोलन के तीसरे चरण में नक्सलियों के निशाने पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता हैं। कहा तो ये जा रहा है कि छत्तीसगढ में सुकुना में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर उन्होंने अपने तीसरे चरण की शुरूआत कर दी है। गृहमंत्रालय ने भी माना है कि नक्सलियों के निशाने पर देश के कई बड़े नेताओं के नाम शामिल हैं। इसमें नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत करने वाले पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम का नाम भी शामिल है। इसके अलावा कई और नेताओं के नाम इस हिट लिस्ट में शामिल बताए जा रहे है। सुकुना में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले के पहले नक्सलियों ने कभी राजनीतिक दलों के नेताओं, उनकी सभाओं या अन्य किसी भी कार्यक्रमों में बाधा नहीं डालते थे। पहली बार कांग्रेस की परिवर्तना यात्रा पर इतना बड़ा हमला कर कई नेताओं और कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारा गया। बहरहाल अगर ये मान लिया जाए कि इस हमले से उन्होंने अपने आंदोलन की तीसरे चरण की शुरुआत की है तो सरकार को और सतर्क होने की जरूरत है। सतर्क इसलिए भी नक्सलियों का चौथा यानि अंतिम चरण काफी खतरनाक है। इसमें दिल्ली मार्च पास्ट और राष्ट्रपति भवन पर लाल झंडा फहरा कर देश पर कब्जा करना है। हालांकि अभी हम ये कह सकते हैं कि अभी दिल्ली बहुत दूर है, लेकिन सच कहूं तो उनकी ताकत जिस तरह से बढ़ती जा रही है, उससे लगता है कि वो अपनी मंजिल के काफी करीब आ गए हैं।
नक्सल आंदोलन को लेकर केंद्र की सरकार वोटों की राजनीति कर रही है। उसे लग रहा है कि अगर नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन चलाया गया तो चुनाव में इसका नतीजा भुगतना होगा। नक्सलियों से बातचीत भी शुरू हो नहीं पा रही है। सरकार का कहना है कि पहले हथियार डालो, फिर बात करेंगे। इसके लिए नक्सली तैयार नहीं है। वो कहते हैं पहले बातचीत करो, समस्याओं का समाधान करो, फिर हथियार डालेंगे। खैर इस मामले में मैं सरकार के साथ हूं, हिंसा के बीच बातचीत शुरू करने का कोई मतलब ही नहीं है। ऐसे में मुझे तो लगता नहीं कि आने वाले समय में भी अब ये मामला बात चीत से हल होने वाला है। मेरा तो मानना है कि ये आंदोलन अब नक्सलियों के कब्जे में भी नहीं रह गया है। नक्सल आंदोलन के नाम पर इन्हें गुमराह किया जा रहा है। इस आंदोलन के लिए इन्हें बाहर से ना सिर्फ आर्थिक मदद मिल रही है, बल्कि अत्याधुनिक हथियार और गोले बारूद की भी सप्लाई की जा रही है। मुझे लगता है कि इनके खिलाफ सख्त आपरेशन चलाने में सरकार की ये मुश्किल हो सकती है कि इसमें तमाम बेगुनाह भी मारे जा सकते हैं। लेकिन सबको पता है कि जो आर्थिक मदद और हथियार इन्हें नेपाल के रास्ते मिलते हैं। इस पर आखिर रोक लगाने के लिए अब तक सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की गई ? वैसे भी नक्सली अब जिस हद तक बढ़ चुके हैं, उसमें बातचीत का रास्ता लगभग बंद है और सरकार को सख्ती से ही निपटना होगा। इसमें अगर कुछ बेगुनाह मारे जाते हैं तो इसकी चिंता भी छोड़नी होगी। क्योंकि उनकी तरफ से हो रहे हमले में भी तो बेगुनाह ही मारे जा रहे हैं।
नक्सलवाद की शुरुआत हक़ की लड़ाई से शुरू होकर बेमकसद हिंसा में तब्दील हो गई और उसी में उलझ गई है. ऐसा लगता है जैसे नक्सलवाद का राजनीतिकरण हो गया है और नक्सलवाद को अपने अपने फायदे के लिए पोषित किया जा रहा है. विकास की बड़ी बड़ी बातें जब कागज़ से निकल कर हकीकत में कार्यान्वित होंगी तब शायद कुछ हल हो सके. अब भी न चेते तो कब? अच्छी रपट, शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteसही कहा आपने
Deleteबहुत बहुत आभार..
सरकार को सख्ती से ही निपटना होगा। इसमें अगर कुछ बेगुनाह मारे जाते हैं तो इसकी चिंता भी छोड़नी होगी।,,
ReplyDeleteRecent post: ओ प्यारी लली,
यही मेरा भी कहना है, बेगुनाह तो अभी भी मारे जा रहे हैं..
Deleteसख्ती जरूरी है..
आपकी यह रचना कल शनिवार (01 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteशुक्रिया भाई अरुण जी
Deleteबिल्कुल सही कहा है आपने .आभार . हम हिंदी चिट्ठाकार हैं.
ReplyDeleteBHARTIY NARI .
एक छोटी पहल -मासिक हिंदी पत्रिका की योजना
शुक्रिया
Deleteसरकार को पहले ही इस आंदोलन को कड़ाई से कुचल देना चाहिए था और अब तो यह अवश्यम्भावी हो गया है कि इसको कुचला जाए और वो भी एक विशेष रणनीति बनाकर जिसमें पहले इनको मिलने वाली सहायता ,इनके अंदरूनी मददगारों पर शिकंजा कसना और नक्सलियों का दमन जैसे काम एक साथ होने चाहिए ताकि इनका समुचित दमन हो सके !
ReplyDeleteबिल्कुल यही सोचना मेरा भी है।
Deleteआभार
बहुत सार्थक लेख
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteआपकी यह रचना आज मंगलवार (बृहस्पतिवार (06-06-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
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