मुझे लगता है कि कम से कम इस विषय पर तो राजनीति नहीं ही होनी चाहिए। संसद पर हमले के शहीद हुए लोगों को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी जब हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया जाएगा। इस घटना को याद करते हुए आज 10 साल बीत चुके हैं लेकिन सवाल एक आज भी रह रहकर काटता है। संसद पर हमले के मास्टर माइंड मोहम्मद अफजल गुरु को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुना दी, लेकिन वोट के सौदागरों ने इस मसले को कुछ ऐसे रंग में रंग दिया कि अफजल गुरु का केस फाइलों में बंद होकर सरकारी महकमें की इस फाइल को मोटा बनाता जा रहा है।
कहते हैं, कोर्ट कचहरी का मुकदमा कभी बूढ़ा नहीं होता लेकिन अपनों को खो चुकी आंखे आज बूढ़ी हो चुकी हैं। शहीदों के परिजनों को कई वादे मिले लेकिन आज तक पूरे न हो सके। किसी से बेटा बिछड़ा तो किसी की मांग सूनी हो गई लेकिन देश 10 साल बीत जाने के बाद भी गुनहगार को सजा दिए जाने की बाट जोह रहा है। अफजल गुरु की फांसी पर दया याचिका राष्ट्रपति के पास विचाराधीन है।
आज इस मौके पर संसद भवन परिसर में आयोजित एक समारोह में हमले में शहीद हुए लोगों को श्रद्धांजलि की खानापूरी की गई। प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति समेत तमाम लोगों ने संसद भवन परिसर में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में हिस्सा लिया, लेकिन शहीद के परिवारों का भरोसा अब सरकार पर नहीं रहा, लिहाजा उन्होंने इस सरकारी आयोजन से खुद को दूर रखा।
हमले के वक्त देश के उप-प्रधानमंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने मानते हैं कि गुनहगार को फांसी की सजा न हो पाना दुखद है, लेकिन देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद फांसी को कानूनी प्रकिया में दखल मानते हैं। सच तो ये है कि अफजल को सजा न मिल पाना आतंक के खिलाफ हमारी कमजोरी को दिखाता है। सवाल सिर्फ एक अफजल का नहीं है...हमारी ढिलाई आज हमें बेबस बना रही है। यदि हमारे नीति नयंता दृढ़ता के साथ न खड़े हुए तो न जाने कितने साल और बीतेंगे, न जाने कितने अफजल और बनेंगे।
श्रद्धांजली का भी दिखावा और फोटो सेशन ही होता है...
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